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सीख

मास्को के airport पे, जब बिन-पाँव इक नारी को देखा! कन्द्रित हुवा मन यह सोचकर, "कैसी है ये कुदरत की लेखा"!! आँख में शूरमा, कान में बाली, दमक रही थी, उसके ओठ की लाली! सुन्दरता से परिपूर्ण वो काया, झेल रही थी, इक काली साया!! वो मजबूर सुंदरी बिन पाँव के, नित-कर्म भी स्वयं न कर पाती होगी! पल-पल की क्रिया-कर्म के लिये, दुसरे की आस लगाती होगी!! यह देख दशा मन पूछ रहा, क्या है, उसके जीवन की भाषा! ओ साकी, क्या तेरी तरह, उसकी भी होगी कोई अभिलाषा !! कुछ सीख कुदरत की इस छवि से, अपंग है, फिर भी चमक रही है! विष पी कर भी, यूँ दमक रही है!! आज तू ऐसा शपथ ले ले, न रोक सके, तुझे कोई माया! तब तक कदम बढ़ाएगा तू, जबतक सकुशल है तेरी काया!!