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ज्ञान-चक्षु

जन्म होने पे सब पाते, केवल सांसे और धडकन! भूल इन्हे हम पिरो देते हैं, रिश्तोँ का बंधन !! किसी का बेटा, किसी का भांजा, किसी का नाती-पोता ! चढ़ा चश्मा इन रिश्तों का, सब जीवन ज्योत है खोता!! राग-द्वेष से विरत हर बच्चा, होता निर्मल निश्छल ! अपने पराये का भेद न जाने, ढूंढता करुणा पल-पल !! अब बूँद-बूँद माया-मोह का, जो घूंट लिया वो क्षण-क्षण ! इस काल-चक्र की चकरी में, भुलाया सांस और धड़कन !! आमूढ़ संस्कारों के परत तले, फ़िर दबने लगा अंतर्मन ! और द्वेष-राग से दहक उठा, तृष्णा से भरे ये तन-मन !! ये राग-द्वेष सुखी लकड़ी के भाँती, जलाये शरीर के इंजन ! तृष्णा है पेट्रोल ओ साकी, दूर रख ऐसे  ईंधन !! चाहे बचपन हो या यौवन हो, या बुढ़ापे की साया ! प्रियतमा से भी प्यारी होती, सबकी अपनी काया !! (इसके) नश्वरता का मूल समझ, देख ! क्या खोया क्या पाया! ज्योत जगा ज्ञान-चक्षु का, की, न फटक सके कोइ माया !!  न फटक सके कोइ माया साखी,  न फटक सके कोइ माया!!