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अर्थ हुआ कुअर्थ- 'दिवाली'

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अब समझने का न रहा समर्थ, बदल चुका दिवाली का अर्थ ! आज ढोल-नगाड़े बजते हैं, दीपों से आँगन सजते हैं ! ये आशय तो सूझ रहा है, पर विशाल कहीं और जूझ रहा है !! पश्चिम में नववर्ष मानते, दक्षिण  में हरिकथा सुनाते ! काली पूजा पूरब में करते, लक्ष्मी पूजा उत्तर में !! दिवाली उत्सव का भारत में, कारण हुआ अनेक ! तारीख-तरीका इन जश्नों का, फिर कैसे हुआ एक !! मानसून अब लौट चला है, सील अभी भी भारी है !! सूरज की गर्मी से अब, कीटों का विस्तार जारी है !! इस उत्सव की छाया में, विभिन्न मान्यताओं की माया में ! सब साफ़-सफाई करते हैं ! घर-आँगन और गलियारों की, रंग पुताई करते हैं !! अनेकों कीट  मरते हैं, कितनों के घर उजड़ते हैं ! फिर, दिवाली की जज्बात में, अमावस्या की काली रात में ! ढोल और नगाड़े बजाकर, हर तरफ दीये  जलाकर ! उन बेघर कीटों को हम, प्रकाश दिखा रिझाते थे ! दीयों के पास उन्हें बुलाकर, दीयों से उन्हें जलाते थे !! नये फैशन के चकाचौंध में, और व्यस्तता की औंध में ! ढोल-नगाड़ों की जगह, अब खूब पटाखे जलते हैं ! जिससे रोगी, वृद्ध और परिंदे, सांस लेने को तड़पते है