आत्मबोध - III
मन-मंदिर के अंतःकण में, घोर विचलन के इस क्षण में ! विशाल को नहीं सूझ रहा, किससे और क्यों वो जूझ रहा !! लोक-लाज की छाया में, व् कलियुग की काली माया में ! सब कहते "तू कर ले शादी", मिल जायेगी जीवनसाथी !! सबके पास एक पार्थ हैं, (पार्थ = candidate) सबका अपना स्वार्थ हैं ! कोई दहेज़ से तौल रहा है, कोई सौंदर्य से मोल रहा है !! नित-प्रतिदिन वर्षों से में, इक ही बात बोल रहा हूँ ! क्षण-प्रतिक्षण, अपने जीवन से, जीने के राज खोल रहा हूँ !! चाह नहीं नए रिश्तों के, बंधन में बँधता जाऊं। चाह नहीं शादी करके, एकांकी परिवार बनाऊं !! आधा जीवन बीत चुका, आधा जीवन ही बाकी है ! मेरे जीवनपथ पे मिलनेवाले, जन-जन मेरे साकी हैं !! माया-मुक्त हो चलते जाना, मेरे जीवन का भावार्थ है ! बंधन-मुक्त हो दुनिया त्यागूँ , मेरा यही स्वार्थ है !! मेरा यही स्वार्थ है...... बस मेरा यही स्वार्थ है......!!