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अर्थ हुआ कुअर्थ - "दोस्ती"

पल-पल विचार इस मन में आये, ये दोस्ती क्या है, कोई हमें बताये! रिश्तों से परे ये पावन होता, बीच जेठ में सावन होता! ये आशय तो सूझ रहा है, पर विशाल कहीं और जूझ रहा है!! दोस्ती के साये में साकी, क्यूँ जरुरी हुआ रोज फ़ोन मिलाना! और झूठी हंसियों के खातिर, केवल मनभावन ही बात सुनाना!! तर्क-कुतर्क व् व्यर्थ की बातों में, जो घंटों समय गवातें हैं! राह-भूले इस चंचल मन के, क्यूँ सच्चे दोस्त कहलाते हैं!! इस दुनिया के चकाचौंध में, हमने सच्ची-दोस्ती की तस्वीर भुलाया! क्षणिक सुखों की चाहत में, कर्मठता को नींद सुलाया!! जब कोई चाहे, इसे जगाये, वो, इस बन्दर-मन को नहीं भाता है! मरू में जलबुंदों की भातीं, वैसा दोस्त भुला दिया जाता है!! इसमें कोई संकोच नहीं, अब दूरगामी अपनी सोच नहीं! अब समझने का न रहा समर्थ, बदल रहा "दोस्ती" का अर्थ!! बदल रहा "दोस्ती" का अर्थ.....