अभिलाषा

जब झील सी सिमटी, छवि निराली, व्याकुल करती मेरी जिज्ञासा! चौकस करता अंतर्मन मेरा, क्या यही है तेरी अभिलाषा!! दीप बनोगे मानवता का, कुछ ऐसा था तुमने ठाना! चाहा कब था आपदा के, इन भवंरों को गले लगाना!! जिन हाथों ने तुझको थामा, व् जीवनपथ के आलम्ब बनें! छोड़ न जाऊँ उनको प्यासा, कुछ ऐसे थी तेरी अभिलाषा!! जीवन एक मिला है साकी, रूककर व्यर्थ गवाओं न! इस भाग-दौड़ की दुनिया में, अपनों से साथ छुडाओ न! जब निष्प्रभ हो याद कर लेना, उन बेबस नयनों की आशा! क्षणिक सुखों की बलि चढाकर, चल पूरी कर अपनी अभिलाषा!