आत्मबोध


कर्म की नईया डोल रही है!
आत्मा व्याकुल हो बोल रही है!!
ओ साकी, अब सोना मत!
इन भवरों में, तुम खोना मत!!

सिर्फ़ पतवार, चलानी सीखी है!
मंजिल तुझको, कहाँ दिखी है!!
जब मंजिल की किरणे, आन लगेगी!
विचलन की भी, वाण चलेगी!!
इन वाणों से, आहत न होना रे!
क्षणिक सुखों के खातिर,
मंजिल की चाहत न खोना रे!!

नदी नहीं, सागर बन जा!
गंभीरता की, गागर बन जा!!
जब लहरें (distraction) तेरी, थम जाएँगी!
तभी नदियाँ (चंचलता), तुझमें खो पाएँगी!!

नईया के मस्तूल के भांति,
लहरों को थामे रखना है!
भूल न जाना की तुमको,
भवसागर से पार निकलना है!!

Comments

  1. ek naye ubharte kavi ki yah sanrachna tariff karne layak hai !! wah wah wah !!

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  2. ati sunder...! kabil-e-tareef...!

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  3. नदी नहीं, सागर बन जा!
    गंभीरता की, गागर बन जा!!
    जब लहरें (distraction) तेरी, थम जाएँगी!
    तभी नदियाँ (चंचलता), तुझमें खो पाएँगी!!


    ye lines bahut achi lagi....

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  4. its ur one of the best writings...be progressive like this..gr8 effort..

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